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Home » दल बदल का गहराता संकट महाराष्ट्र – देवेन्द्र सिंह असवाल*
विशेष

दल बदल का गहराता संकट महाराष्ट्र – देवेन्द्र सिंह असवाल*

(लेखक पूर्व अपर सचिव लोकसभा हैं और संवैधानिक और संसदीय मामलों के विशेषज्ञ। उल्लिखित विचार निजि हैं।)
OnnuBy OnnuJune 30, 2022Updated:June 30, 2022No Comments5 Mins Read
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आया राम और गया राम’  के वीभत्स नृत्य-दल बदल-को रोकने के लिए संसद ने 1985 में 52वें संशोधन  द्वारा सविंधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी जिसे 2003 में 91वें संशोधन द्वारा और कठोर बनाया गया। संवैधानिक स्थिति अबयह है कि विधायिका का कोई सदस्य, चाहे वह संसद या राज्य विधानमंडल का सदस्य हो, अपनी विधायी सदस्यता खो देगा यदि वह दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित किया जाता है।

दसवीं अनुसूची के अनुसार किसी विधायक को अयोग्य ठहराने के आधार हैं- यदि उसने स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की  सदस्यता छोड़ दी है, या, यदि वह सदन में मतदान के समय अनुपस्थित रहता है या अपने दल के दिशा-निर्देश के विपरीत मतदान करता है। परन्तु संविधान में यह अपवाद है कि यदि विधायक दल के दो-तिहाई या उससे अधिक सदस्य किसी अन्य पार्टी में  विलय करते हैं या नईं पार्टी बनाते हैं तो ऐसी स्थिति में दलबदल-विरोधी कानून लागू नहीं होगा।अयोग्यता के सवाल पर निर्णय के लिँये पीठासीन अधिकारी, अध्यक्ष / सभापति सक्षम होते हैं जिनके निर्णय की, किहोटो होलोहन बनाम ज़चिल्हूऔर अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, 1992,  केवल न्यायिक समीक्षा हो सकती है।  

दल-बदल क़ानून एक बार फिर सुर्ख़ियो में है महाराष्ट्र में सत्ताधारी गठबन्धन के एक महत्वपूर्ण घटक शिवसेना में विभाजन की ख़बर को लेकर।  एकनाथ शिन्दे, जो शिवसेना के विधायक और मन्त्री हैं, ने दावा किया है कि उनके साथ शिवसेना विधायी दल के दो तिहाई से ज्यादा  विधायक हैं। दूसरी ओर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे नें मीडिया में औपचारिक बयान देकर तथा मुख्यमंत्री का सरकारी आवास खाली कर सामान्य व्यक्ति के संशय को पुष्ट किया कि वे विधानसभा में बहुमत खो चुके हैं। यह भी सार्वजनिक है कि जब उद्धवथाकरे नें अपने विधाईदल की बैठक बुलाई तो उसमें  छप्पन विधायकों में सेकेवल तेरह ही विधायक उपस्थित थे। उन्होने यह भी सार्वजनिक घोषणा की और आह्वान किया कि वे पदलोलुप क़तई नहीं हैं और असन्तुष्ठ सर्वसम्मति सेनया नेता व मुख्यमन्त्री चुन सकते हैं। दूसरी ओर बाग़ी विंधायको ने जिन्होंनेसूरत से बग़ावत का शंखनाद किया था, बजाय मुम्बई आकर राज्यपाल से विंधानसभा का सत्र आहुत करने और विधानसभा में अविश्वास का प्रस्ताव लाने की माँग रखने के, मुम्बई से सुदूर गोहाटी में अब डेरा डाला हुआ है।अल्पमत के ख़तरे से बचने के लिँये मुख्यमंत्री खेमें ने बारह विधायकों के ख़िलाफ़ दलबदल क़ानून का हवाला देकर विधानसभा के उपांध्यक्ष से गुहार लगाई है कि उक्त विधायकों की विधानसभा सदस्यता खारिज की जाय।उपांध्यक्ष ने उन विधायकों को कारण बताओ नोटिस जारी किये हैं।  बाग़ी खेमे ने  उपांध्यक्ष को पद से हटाने का नोटिस देकर एक और संविधानिक संकट पैदा किया है क्योंकि नियमानुसार उपांध्यक्ष, जब तक उनके ख़िलाफ़ पद से हटाने का मामला लम्बित है, दल-बदल की याचिका पर निर्णय नहीं दे सकते। महाराष्ट्र की विंधानसभा में अध्यक्ष का पद रिक्त है और उपाध्यक्ष जिनके ख़िलाफ़ पद से हटानें का संकल्प विचाराधीन है, पद पर होते हुए भी पीठासीन नहीं हो सकते। संविधान के अनुच्छेद 180 में व्यवस्था है कि यदि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के दोनों पद रिक्त हैं तो राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए विधानसभा के किसी सदस्य को नियुक्त कर सकते हैं जो उक्त पद के कर्तव्योंका पालन करेगा।

महाराष्ट्र जैसा बड़ा राज्य अकल्पनीय राजनीतिक परिस्थियाँ से गुज़र रहा है।उपाध्यक्ष ने जिन बारह बाग़ी विधायकों को कारण बता नोटिस जारी किया है उन्होने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है कि उपाध्यक्ष को रोका जाय उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से।   ज्वलन्त प्रश्न है कैसे महाराष्ट्र में राजनीतिक स्थिरता बहाल हो। ‘आया-राम और गया-राम’ की वीभत्स राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए संविधान में दो संशोधन भी हुए, क़ानून भी काफ़ी कठोर बनाया गया।  परन्तु दल-बदल क़ानून निरीह लगता है ‘चारटेड फ्लाइटस’ और असीम धनशक्ति के सामने। ऐसी परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय सम्बन्धित पक्षों को सुनने के पश्चात  आदेश दे सकता है कि बाग़ी विंधायक महाराष्ट्र लौटे और राज्य सरकार उन्हें पुख़्ता सुरक्षा दे। साथ ही ऐसा कोई आदेश जारी हो जिससे विधायको को राज्य से बाहर ले जाने कीकुप्रथा पर अंकुश लगे और प्रवर्तन विभाग इस तरह की घटनाओं पर होने वालेतमाम व्यय की तुरंत और निष्पक्ष जाँच करे ताकि धनबल का दुर्पयोग दलबदल की राजनीति को भड़कावे-उकसावे के लिए न हो।  इस परिपेक्ष मेंउल्लेखनीय है राज्यपाल की शक्तियों का। राज्यपाल का संविधानिक दायित्वहै यह देखना और संघ सरकार को सूचित करना जब भी राज्य की सरकारसंविधान के उपबन्धों के विमुख कार्य करे। इतना तो स्पष्ठ है कि महाराष्ट्र मेंमुख्यमंत्री का विधानसभा में बहुमत संशय में है और  प्रयास हो रहा है दल-बदल क़ानून का सहारा लेकर सरकार को  बचाने का बाबजूद दो तिहाई सेज्यादा विधायकों का  पार्टी से अलग होना। गोवा विधानसभा के मामले मेंबम्बई उच्च न्यायालय  ने गोवा विधानसभा अध्यक्ष के उस निर्णय को संविधॉनसंगत बताया है जिसमें उन्होने  गोवा विधानसभा के उन सदस्यो की सदस्यतारद्द नहीं की क्योंकि उक्त सदस्यो की संख्या दो-तिहाई से ज्यादा  थ जो एक विधायी दल से  दूसरे विधायी  दल में शामिल हुए।

दूसरी ओर राज्यपाल स्थिति पर नज़र रखे हुए हैं और उन्होने गृह मन्त्रालय, भारत सरकार और महाराष्ट्र पुलिस को बाग़ी विधेयकों के परिजनों और उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा के लिंए पत्र लिखे हैं। राज्यपाल का दायित्व है कि सदैव आश्वस्त रहें कि मुख्यमन्त्री का विधानसभा में बहुमत है क्योंकि राज्यपाल ही मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करते हैं जब उन्हें यह भरोसां होता है कि मुख्यमन्त्री का विधानसभा में बहुमत है। जहाँ और जब भी भरोसा डगमगाता है या संशय में आता है, विधानसभा में शक्ति परीक्षण होता है।   साथ ही मुख्यमन्त्री तथा मन्त्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहते हैं।  अत: वर्तमान राजनीतिक सकंट में यदि सर्वोच्च न्यायालय कोई हस्तक्षेप नहीं करता है या मामला लम्बा खींचता है तो यह राज्यपाल का संविधानिक दायित्व  है कि विधानसभा का सत्र आहुत हो और विधानसभा में अविलम्ब शक्ति परीक्षण हो।

दलबदल क़ानून ‘आया राम गया राम’  की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए लाया गया था ताकि मतदाताओं के मतदान का सौदा न हो और संसदीय लोकतंत्र की नींव स्थिर और मज़बूत रहे। परन्तु पिछले कुछ वर्षों में थोक में दलबदल हुए हैं और क़ानून दलबदल रोकनें में विफल रहा है। अत:  दलबदल-विरोधी कानून की पुन: समीक्षा होनी चाहिए और कानून में यह व्यवस्था हो कि जो सदस्य दल बदल करता है चुनाव जीतने के बाद, उसे अगले पाँच वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य घोषित किया जाय। 

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